स्त्रियां आज दोहरी गुलामी की शिकार --कृष्णपल्लवी

देहरादून--स्त्री मुक्ति लीग और दून सिनेफाइल्स द्वारा आज 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' के अवसर पर जब्बार पटेल द्वारा निर्देशित फिल्म 'सुबह' की स्क्रीनिंग की गई और उस पर विस्तार से बातचीत की गई। फ़िल्म 'सुबह' एक स्त्री के संघर्ष की सशक्त कहानी है,जो घर में पितृसत्तात्मक-मूल्यों से लड़ती है और बाहर स्त्री को एक मॉल बना देने,स्त्री की गरिमा-स्वाभिमान पर चोट करने वाली इस व्यवस्था से भी लड़ती है।इस कार्यक्रम की संयोजिका कविता कृष्णपल्लवी ने कहा कि,स्त्रियां आज दोहरी गुलामी की शिकार हैं, जिसे ये फ़िल्म बख़ूबी दिखाती है।घर में वे पितृसत्तात्मक मूल्यों, परम्पराओं, रुढ़ियों द्वारा दबाई जाती हैं और बाहर कदम -कदम पर उन्हें अपनी अस्मिता-सम्मान के लिए जूझना पड़ता है। ये फ़िल्म समाज के अलग-अलग तबकों की शोषित-उत्पीड़ित महिलाओं की हकीक़त को हमारे सामने खोलकर रख देती है।फ़िल्म पर हुई अनौपचारिक चर्चा में राकेश अग्रवाल, मीनू जैन, अश्विनी त्यागी, जयदीप सकलानी और गीता गैरोला  आदि ने भाग लिया।यह फ़ि‍ल्‍म घर की बंदिशों और व्‍यापक सामाजिक उद्देश्‍य के लिए जीने के बीच अपनी जगह पाने के लिए जूझती एक स्‍त्री की कहानी है। 1981 में हिन्‍दी में 'सुबह' और मराठी में 'उम्‍बरठा' (चौखट) नाम से एक साथ बनी यह फ़ि‍ल्‍म मराठी लेखिका और संगीतविद शान्‍ता निसल के आत्‍मकथात्‍मक उपन्‍यास 'बेघर' पर आधारित है, जिसकी पटकथा प्रसिद्ध नाटककार विजय तेन्‍दुलकर ने लिखी है। सावित्री महाजन (स्मिता पाटिल) घर की चार दीवारों से बाहर निकलकर अपने बूते कुछ करना चाहती है और ख़ासकर शोषण-उत्‍पीड़न की शिकार स्त्रियों की ज़ि‍न्‍दगी में बदलाव लाना चाहती है। वह एक समृद्ध परिवार से है - उसका पति एक नामी वकील है, पति के भाई का नर्सिंग होम है - लेकिन सावित्री के करने के लिए वहाँ कुछ नहीं है। सास चार-चार समाज सुधार संस्‍थाएँ चलाती है लेकिन उस दिखावटी समाजसुधार में उसका मन नहीं लगता। उसे महाराष्‍ट्र के एक छोटे से शहर में महिला सुधारगृह की सुपरिंटेंडेंट का काम मिलता है। सास के सीधे विरोध और पति के भावनात्‍मक दबाव डालने के बावजूद वह संगमवाडी चली जाती है। उसे अपनी बेटी को भाभी के पास छोड़कर जाने को कहा जाता है। सुधारगृह में हालात बेहद बुरे हैं। वित्‍तीय भ्रष्‍टाचार से लेकर घनघोर अनुशासनहीनता का आलम है। तमाम सतायी गयी स्त्रियों में बहुतेरी ख़ुद अमानवीकरण की शिकार हैं और एक-दूसरे से लड़ती-झगड़ती रहती हैं।
 किसी को उसके घरवालों ने छोड़ दिया है, कोई अपने ज़ालिम पति के पास जाना नहीं चाहती। कई स्त्रियाँ पति, शिक्षक या गुंडों के निर्मम दुर्व्‍यवहार या बलात्‍कार की शिकार होकर वहाँ लायी गयी हैं। ज्‍़यादातर ग़रीब और शोषित-दलित परिवारों से हैं। बाहर की दुनिया उन्‍हें ''गिरी हुई औरतों'' के रूप में देखती है जिनके साथ कुछ भी किया जा सकता है। स्‍थानीय एमएलए उसके पास रात को लड़की भेजने की माँग करता है तो पिछली सुपरिटेंडेंट किसी व्‍यापारी के यहाँ पार्टियों में लड़कियाँ ''सप्‍लाई'' किया करती थी। सावित्री इस अँधेरगर्दी के विरुद्ध कार्रवाई शुरू करती है और अपने मानवीय व्‍यवहार से आश्रम की स्त्रियों का विश्‍वास जीतने में भी सफल होती है। लेकिन मैनेजिंग कमेटी के लोग उसके रास्‍ते में रोड़े अटकाते हैं। आश्रम में हुई कुछ घटनाओं का फ़ायदा उठाकर वे सावित्री के खिलाफ़ दुष्‍प्रचार कराते हैं और एमएलए उस पर हमला भी कराता है। उसके विरुद्ध जाँच बैठा दी जाती है। सावित्री को लगता है कि ये लोग उसे काम नहीं करने देंगे और वह इस्‍तीफ़ा देकर वापस लौट जाती है। उससे पहले जाँच कमीशन के सामने वह कहती है कि इन संस्‍थाओं में जो कुछ होता है उसका संबंध बाहर की दुनिया से है जिस पर मेरा बस नहीं है। जो सवाल बाहर नहीं सुलझ सकते उन्‍हें यहाँ लाकर ठूँस दो। ये सारी संस्‍थाएँ समाज के प्रतिष्ठित लोगों के लिए कचरापेटी की तरह हैं। वह कहती है मैं चुप नहीं बैठूँगी, मैं लड़ती रहूँगी, यहाँ नहीं, तो कहीं और... घर लौटने पर उसे पता चलता है कि काफ़ी कुछ बदल चुका है। उसकी सास वापस आने से ख़ुश नहीं है, पति ने किसी और के साथ रिश्‍ता बना लिया है। घर में रहने के लिए उसे अब कई समझौते करने होंगे। फ़ि‍ल्‍म के अन्तिम दृश्‍य में हम देखते हैं कि सावित्री घर छोड़कर एक नयी यात्रा पर निकल पड़ी है।कार्यक्रम में स्त्री मुक्ति से संबंधित 'मुक्ति के स्वर' पोस्टर प्रदर्शनी लगाई गई। कार्यक्रम में सोनिया नौटियाल, मीनू जैन, गीता गैरोला, प्रेम जैन, एमी पात्रा, वाई. पी. सिंह, भावना वर्मा और जयदीप सकलानी आदि लोग उपस्थित रहे।

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