डंडे के दम पर बाजार बंद.....
देहरादून-- दून में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दलित समाज के कार्यकर्ताओं ने व दलित समाज के विभिन्न संगठनों ने और राजनीतिक दलों ने भारत बंद के आह्वान पर रैली निकालकर विरोध प्रदर्शन करते हुए करणपुर से घंटाघर होते हुए पलटन बाजार में दुकानें बंद करवाते हुए हल्की-फुल्की तू तू मैं मैं भी व्यापारियों के साथ हुई, धामावाला घोसी गली तिलक रोड सहारनपुर चौक राजा रोड़ से डी एम कार्यालय तक अपने प्रदर्शन में उन्होंने बाजार बंद करवाते हुए होते हुए जिलाअधिकारी कार्यालय में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के माध्यम से राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजा , जान लीजिए कि जान लीजिए कि हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एससी/एसटी एक्ट के बड़े पैमाने पर गलत इस्तेमाल की बात को स्वीकार करते हुए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम, 1989 के तहत किसी भी तरह के अपराध के मामले में न्यायालय द्वारा नए दिशा-निर्देश जारी किये गए हैं।
इन नए दिशा-निर्देशों में न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया है, जैसा कि अधिनियम में वर्णित है उस प्रारूप के अनुसार अब न तो तत्काल गिरफ्तारी की जाएगी और न ही तत्काल एफआईआर ही दर्ज की जाएगी।अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति अधिनियम के दुरुपयोग के संबंध में शिकायत मिलने पर तत्काल एफआईआर दर्ज करने से पहले डीएसपी द्वारा मामले की जाँच की जाएगी।किसी सरकारी अफसर की गिरफ्तारी से पहले उसके उच्चाधिकारी से अनुमति लेनी ज़रूरी होगी। ऐसे मामलों में सामान्य आदमी के संबंध में एसएसपी की मंज़ूरी लेना आवश्यक बना दिया गया है। इसके साथ ही अभियुक्त की भी तत्काल गिरफ्तारी नहीं की जाएगी तथा गिरफ्तारी से पहले उसकी जमानत के मार्ग को प्रशस्त किया गया है।गौरतलब है कि पिछले तीन दशकों में अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति अधिनियम, 1989 [Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act] के तहत कई फर्ज़ी मामले सामने आए हैं। सुप्रीम न्यायालय ने पुणे के राजकीय फार्मेसी कॉलेज, कारद में कार्यरत अफसर डॉ. सुभाष काशीनाथ महाजन की याचिका के संबंध में यह निर्णय सुनाया है।न्यायालय द्वारा जारी किये गए नए दिशा-निर्देश
I. ऐसे मामलों में किसी भी निर्दोष को कानूनी प्रताड़ना से बचाने के लिये कोई भी शिकायत मिलने पर तत्काल एफआईआर दर्ज नहीं की जाएगी। सबसे पहले शिकायत की जाँच डीएसपी स्तर के पुलिस अफसर द्वारा की जाएगी।. न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया है कि यह जाँच पूर्ण रूप से समयबद्ध होनी चाहिये। जाँच किसी भी सूरत में 7 दिन से अधिक समय तक न चले। इन नियमों का पालन न करने की स्थिती में पुलिस पर अनुशासनात्मक एवं न्यायालय की अवमानना करने के संदर्भ में कार्यवाई की जाएगी।अभियुक्त की तत्काल गिरफ्तारी नहीं की जाएगी। सरकारी कर्मचारियों को नियुक्त करने वाली अथॉरिटी की लिखित मंज़ूरी के बाद ही गिरफ्तारी हो सकती है और अन्य लोगों को ज़िले के एसएसपी की लिखित मंज़ूरी के बाद ही गिरफ्तारी किया जा सकेगा।
इतना ही नहीं, गिरफ्तारी के बाद अभियुक्त की पेशी के समय मजिस्ट्रेट द्वारा उक्त कारणों पर विचार करने के बाद यह तय किया जाएगा कि क्या अभियुक्त को और अधिक समय के लिये हिरासत रखा जाना चाहिये अथवा नहीं। इस मामले में सरकारी कर्मचारी अग्रिम जमानत के लिये भी आवेदन कर सकते हैं। आप को बता दें कि अधिनियम की धारा 18 के तहत अभियुक्त को अग्रिम ज़मानत दिये जाने पर भी रोक है।
उत्पीड़न के ज़्यादातर मामले झूठे हैं,नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के संबंध में विचार करने पर ज्ञात होता है कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम में दर्ज ज़्यादातर मामले झूठे पाए गए।न्यायालय द्वारा अपने फैसले में ऐसे कुछ मामलों को शामिल किया गया है जिसके अनुसार 2016 की पुलिस जाँच में अनुसूचित जाति को प्रताड़ित किये जाने के 5347 झूठे मामले सामने आए, जबकि अनुसूचित जनजाति के कुल 912 मामले झूठे पाए गए।वर्ष 2015 में एससी-एसटी कानून के तहत न्यायालय द्वारा कुल 15638 मुकदमों का निपटारा किया गया। इसमें से 11024 मामलों में या तो अभियुक्तों को बरी कर दिया गया या फिर वे आरोप मुक्त साबित हुए। जबकि 495 मुकदमों को वापस ले लिया गया।केवल 4119 मामलों में ही अभियुक्तों को सज़ा सुनाई गई। ये सभी आँकड़े 2016-17 की सामाजिक न्याय विभाग की वार्षिक रिपोर्ट में प्रस्तुत किये गए हैं।
इन नए दिशा-निर्देशों में न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया है, जैसा कि अधिनियम में वर्णित है उस प्रारूप के अनुसार अब न तो तत्काल गिरफ्तारी की जाएगी और न ही तत्काल एफआईआर ही दर्ज की जाएगी।अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति अधिनियम के दुरुपयोग के संबंध में शिकायत मिलने पर तत्काल एफआईआर दर्ज करने से पहले डीएसपी द्वारा मामले की जाँच की जाएगी।किसी सरकारी अफसर की गिरफ्तारी से पहले उसके उच्चाधिकारी से अनुमति लेनी ज़रूरी होगी। ऐसे मामलों में सामान्य आदमी के संबंध में एसएसपी की मंज़ूरी लेना आवश्यक बना दिया गया है। इसके साथ ही अभियुक्त की भी तत्काल गिरफ्तारी नहीं की जाएगी तथा गिरफ्तारी से पहले उसकी जमानत के मार्ग को प्रशस्त किया गया है।गौरतलब है कि पिछले तीन दशकों में अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति अधिनियम, 1989 [Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act] के तहत कई फर्ज़ी मामले सामने आए हैं। सुप्रीम न्यायालय ने पुणे के राजकीय फार्मेसी कॉलेज, कारद में कार्यरत अफसर डॉ. सुभाष काशीनाथ महाजन की याचिका के संबंध में यह निर्णय सुनाया है।न्यायालय द्वारा जारी किये गए नए दिशा-निर्देश
I. ऐसे मामलों में किसी भी निर्दोष को कानूनी प्रताड़ना से बचाने के लिये कोई भी शिकायत मिलने पर तत्काल एफआईआर दर्ज नहीं की जाएगी। सबसे पहले शिकायत की जाँच डीएसपी स्तर के पुलिस अफसर द्वारा की जाएगी।. न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया है कि यह जाँच पूर्ण रूप से समयबद्ध होनी चाहिये। जाँच किसी भी सूरत में 7 दिन से अधिक समय तक न चले। इन नियमों का पालन न करने की स्थिती में पुलिस पर अनुशासनात्मक एवं न्यायालय की अवमानना करने के संदर्भ में कार्यवाई की जाएगी।अभियुक्त की तत्काल गिरफ्तारी नहीं की जाएगी। सरकारी कर्मचारियों को नियुक्त करने वाली अथॉरिटी की लिखित मंज़ूरी के बाद ही गिरफ्तारी हो सकती है और अन्य लोगों को ज़िले के एसएसपी की लिखित मंज़ूरी के बाद ही गिरफ्तारी किया जा सकेगा।
इतना ही नहीं, गिरफ्तारी के बाद अभियुक्त की पेशी के समय मजिस्ट्रेट द्वारा उक्त कारणों पर विचार करने के बाद यह तय किया जाएगा कि क्या अभियुक्त को और अधिक समय के लिये हिरासत रखा जाना चाहिये अथवा नहीं। इस मामले में सरकारी कर्मचारी अग्रिम जमानत के लिये भी आवेदन कर सकते हैं। आप को बता दें कि अधिनियम की धारा 18 के तहत अभियुक्त को अग्रिम ज़मानत दिये जाने पर भी रोक है।
उत्पीड़न के ज़्यादातर मामले झूठे हैं,नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के संबंध में विचार करने पर ज्ञात होता है कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम में दर्ज ज़्यादातर मामले झूठे पाए गए।न्यायालय द्वारा अपने फैसले में ऐसे कुछ मामलों को शामिल किया गया है जिसके अनुसार 2016 की पुलिस जाँच में अनुसूचित जाति को प्रताड़ित किये जाने के 5347 झूठे मामले सामने आए, जबकि अनुसूचित जनजाति के कुल 912 मामले झूठे पाए गए।वर्ष 2015 में एससी-एसटी कानून के तहत न्यायालय द्वारा कुल 15638 मुकदमों का निपटारा किया गया। इसमें से 11024 मामलों में या तो अभियुक्तों को बरी कर दिया गया या फिर वे आरोप मुक्त साबित हुए। जबकि 495 मुकदमों को वापस ले लिया गया।केवल 4119 मामलों में ही अभियुक्तों को सज़ा सुनाई गई। ये सभी आँकड़े 2016-17 की सामाजिक न्याय विभाग की वार्षिक रिपोर्ट में प्रस्तुत किये गए हैं।
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