मोक्षघाट तक पारंपरिक ढोल नगाड़ों के साथ शव यात्रा
उत्तरकाशी– आज तक आपने किसी शवयात्रा को पारंपरिक वाद्य यंत्रों ढोल नगाड़ों की थाप के साथ नृत्य करते हुए ले जाने की बात न सुनी होगी न देखी होगी,,,,
लेकिन,,,, उत्तरकाशी जिले में खासकर रवाईं यमुनाघाटी में अभी भी जिंदा है एक अनोखी संस्कृति, जहां किसी बुजुर्ग के मरने पर शव यात्रा को मोक्षघाट तक गाजे बाजों व पारंपरिक ढोल नगाड़ों रणसिंघो के साथ नृत्य करते हुए ले जाया जाता है शमशान घाट तक।सुनने व देखने मे जरूर अटपटा लग सकता है लेकिन यही विचित्र भी है, और सत्य भी है,,,
अद्भुत भी है अकल्पनीय भी,,, अभी 22 मई 2019 को मैं अपने रिश्तेदार चैन सिंह जयाड़ा उम्र 87 वर्ष, सेवानिवृत्त पंचायत राज अधिकारी निवासी डख्याट गांव, बड़कोट की मृत्यु का समाचार सुन उनके अंतिम दर्शन व उनकी शवयात्रा में शामिल होने के लिए गया।। उनकी शवयात्रा को भव्य रूप से दर्जनों ढोल, नगाड़ों, रणसिंघो के साथ ले जाया गया । सैकड़ों लोग इस शवयात्रा में शरीक थे।रास्ते में यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर बड़कोट में शवयात्रा को एक जगह रोककर गढ़वाली पहाड़ी पारंपरिक वाद्य यंत्रों ढोल बाजे नगाड़े व रणसिंघो के साथ करीब 30 मिनट तक नृत्य किया गया है।। ये एक नया अनुभव था जो अदभुत और अकल्पनीय था।।
मात्र औऱ मात्र केवल शवयात्रा में किये जाने वाले इस नृत्य को '"पैंसारा"" नाम दिया गया है।
इस खास नृत्य को ढोल बजाने के साथ ही किया जाता है।। जोड़ी में बारी बारी से इस नृत्य में निपुण लोग ढोल के साथ ढोल को विशेष अंदाज में बजाते बजाते इस नृत्य को प्रस्तुत करते हैं। बाकी ढोल, नगाड़े व पहाड़ी वाद्य यंत्रों को बजाने वाले इनका साथ देते हैं।। इन ढोल नगाड़े बजाने वालों को स्थानीय भाषा मे "बाजगी" कहा जाता है। जिस किसी के घर से किसी बुजुर्ग की मृत्यु होती है उसके परिवारजन व रिस्तेदार मृत आत्मा की शांति के लिए प्रयाप्त मात्रा में इस नृत्य को करने वालों व दूसरे वाद्य यंत्रों व पहाड़ी ढोल नगाड़े बजाने वालों को पैसे रुपये भेंट करते हैं वो भी बारी बारी ताकि बीच नृत्य में कोई बाधा न हो। इस पैंसारा नृत्य के निपुण लोग इस नृत्य के दौरान गजब का समां बांध लोगों के आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं । गजब का समां बंध जाता है। लोग मंत्रमुग्ध इस नृत्य को देखते हैं।हालाँकि ये परंपरा व संस्कृति विलुप्ति की कगार पर है लेकिन है अभी भी जिंदा।। केंद्रीय विस्वविद्यालय श्रीनगर के प्रोफेसर रहे प्रो डी आर पुरोहित कहते हैं कि पहले ये संस्कृति उत्तराखंड के उत्तरकाशी, चमोली, पौड़ी गढ़वाल में जिंदा थी। पहले जवान हो या बुजुर्ग सभी की मृत्युयात्रा में इस नृत्य को किया जाता था। तब लोग मौत को भी सेलीब्रेट करते थे, क्योंकि मृत्यु ही अंतिम सत्य है। प्रशासनिक अधिकारी रहे मदन सिंह कुंडरा कहते हैं कि अपनी उम्र पूरी कर चुके बुजुर्गों की ही मृत्युयात्रा में इस नृत्य को किया जाता है।
आज पहाड़ की एक मजबूत औऱ अदभुत, अनूठी, अकल्पनीय कला औऱ संस्कृति विलुप्ति के कगार पर है। ये एक ऐसी कला है जिसे लाखो करोडों खर्च करके भी किसी संस्थान से नहीं सीखा जा सकता है।।इस अति महत्वपूर्ण कला के बचे खुचे माहिर और निपुण लोगों को चिन्हित कर सरकार उन्हें मदद और संरक्षण दे ताकि विलुप्ति की कगार पर यह अनूठी कला संसाधनो व संरक्षण के अभाव में कहीं दम न तोड़ दे।। पैंसारा नाम से विख्यात इस दुर्लभ कला को जानने वाले लोग शदियों से अपने ही पूर्वजों व बुजुर्गों से इस अनूठी कला को सीखते आये हैं। और इसी क्रम में ये अदभुत कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरण हो रही है बिना किसी सरकारी संसाधनों व संरक्षण के। इस नृत्य कला में निपुण बड़कोट निवासी श्री रामदास कहते हैं कि इस अदभुत संस्कृति व कला के संरक्षण की आवश्यकता है, अन्यथा संसाधनों के अभाव में ये एक दिन दम तोड़ देगी।साभार के साथ लोकेंद्र सिंह बिष्ट,
लेकिन,,,, उत्तरकाशी जिले में खासकर रवाईं यमुनाघाटी में अभी भी जिंदा है एक अनोखी संस्कृति, जहां किसी बुजुर्ग के मरने पर शव यात्रा को मोक्षघाट तक गाजे बाजों व पारंपरिक ढोल नगाड़ों रणसिंघो के साथ नृत्य करते हुए ले जाया जाता है शमशान घाट तक।सुनने व देखने मे जरूर अटपटा लग सकता है लेकिन यही विचित्र भी है, और सत्य भी है,,,
अद्भुत भी है अकल्पनीय भी,,, अभी 22 मई 2019 को मैं अपने रिश्तेदार चैन सिंह जयाड़ा उम्र 87 वर्ष, सेवानिवृत्त पंचायत राज अधिकारी निवासी डख्याट गांव, बड़कोट की मृत्यु का समाचार सुन उनके अंतिम दर्शन व उनकी शवयात्रा में शामिल होने के लिए गया।। उनकी शवयात्रा को भव्य रूप से दर्जनों ढोल, नगाड़ों, रणसिंघो के साथ ले जाया गया । सैकड़ों लोग इस शवयात्रा में शरीक थे।रास्ते में यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर बड़कोट में शवयात्रा को एक जगह रोककर गढ़वाली पहाड़ी पारंपरिक वाद्य यंत्रों ढोल बाजे नगाड़े व रणसिंघो के साथ करीब 30 मिनट तक नृत्य किया गया है।। ये एक नया अनुभव था जो अदभुत और अकल्पनीय था।।
मात्र औऱ मात्र केवल शवयात्रा में किये जाने वाले इस नृत्य को '"पैंसारा"" नाम दिया गया है।
इस खास नृत्य को ढोल बजाने के साथ ही किया जाता है।। जोड़ी में बारी बारी से इस नृत्य में निपुण लोग ढोल के साथ ढोल को विशेष अंदाज में बजाते बजाते इस नृत्य को प्रस्तुत करते हैं। बाकी ढोल, नगाड़े व पहाड़ी वाद्य यंत्रों को बजाने वाले इनका साथ देते हैं।। इन ढोल नगाड़े बजाने वालों को स्थानीय भाषा मे "बाजगी" कहा जाता है। जिस किसी के घर से किसी बुजुर्ग की मृत्यु होती है उसके परिवारजन व रिस्तेदार मृत आत्मा की शांति के लिए प्रयाप्त मात्रा में इस नृत्य को करने वालों व दूसरे वाद्य यंत्रों व पहाड़ी ढोल नगाड़े बजाने वालों को पैसे रुपये भेंट करते हैं वो भी बारी बारी ताकि बीच नृत्य में कोई बाधा न हो। इस पैंसारा नृत्य के निपुण लोग इस नृत्य के दौरान गजब का समां बांध लोगों के आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं । गजब का समां बंध जाता है। लोग मंत्रमुग्ध इस नृत्य को देखते हैं।हालाँकि ये परंपरा व संस्कृति विलुप्ति की कगार पर है लेकिन है अभी भी जिंदा।। केंद्रीय विस्वविद्यालय श्रीनगर के प्रोफेसर रहे प्रो डी आर पुरोहित कहते हैं कि पहले ये संस्कृति उत्तराखंड के उत्तरकाशी, चमोली, पौड़ी गढ़वाल में जिंदा थी। पहले जवान हो या बुजुर्ग सभी की मृत्युयात्रा में इस नृत्य को किया जाता था। तब लोग मौत को भी सेलीब्रेट करते थे, क्योंकि मृत्यु ही अंतिम सत्य है। प्रशासनिक अधिकारी रहे मदन सिंह कुंडरा कहते हैं कि अपनी उम्र पूरी कर चुके बुजुर्गों की ही मृत्युयात्रा में इस नृत्य को किया जाता है।
आज पहाड़ की एक मजबूत औऱ अदभुत, अनूठी, अकल्पनीय कला औऱ संस्कृति विलुप्ति के कगार पर है। ये एक ऐसी कला है जिसे लाखो करोडों खर्च करके भी किसी संस्थान से नहीं सीखा जा सकता है।।इस अति महत्वपूर्ण कला के बचे खुचे माहिर और निपुण लोगों को चिन्हित कर सरकार उन्हें मदद और संरक्षण दे ताकि विलुप्ति की कगार पर यह अनूठी कला संसाधनो व संरक्षण के अभाव में कहीं दम न तोड़ दे।। पैंसारा नाम से विख्यात इस दुर्लभ कला को जानने वाले लोग शदियों से अपने ही पूर्वजों व बुजुर्गों से इस अनूठी कला को सीखते आये हैं। और इसी क्रम में ये अदभुत कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरण हो रही है बिना किसी सरकारी संसाधनों व संरक्षण के। इस नृत्य कला में निपुण बड़कोट निवासी श्री रामदास कहते हैं कि इस अदभुत संस्कृति व कला के संरक्षण की आवश्यकता है, अन्यथा संसाधनों के अभाव में ये एक दिन दम तोड़ देगी।साभार के साथ लोकेंद्र सिंह बिष्ट,
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