नहीं रहे पहाड़ के मांझी

देहरादून–उत्तराखण्ड के पर्यावरण मसीहा विश्वेशर दत्त सकलानी नही रहे।उन्होंने 97 वर्ष की लंबी उम्र के बाद अपने ही पैतृक गांव टिहरी के पुजारा में इस दुनिया को अलविदा कहा।उनके जाने से इंसान ही नही वे पेड़ पौधे भी गमजदा है जिनके लिए सकलानी जीवन पर्यन्त जीते रहे।क्या कोई इंसान कभी वृक्ष व वनसम्पदा से इतना लगाव और प्यार कर सकता है।जितना सकलानी ने कर दिखाया।वह एक ऐसा हरियाली का नायक था ,जिन्होंने अपना पूरा जीवन धरती मां को हरा भरा रखने के लिए समर्पित कर दिया।वह एक ऐसा तपस्वी था जिसकी मेहनत गढ़वाल की एक पूरी घाटी को हरियाली में बदल चुकी है।यह विशेश्वर दत्त सकलानी नाम के एक ऐसे वनऋषि की कहानी है जिन्होंने मात्र 8 साल की उम्र से पेड़ लगाने शुरू किए थे और जीवन के अंत तक 50 लाख से अधिक पेड़ लगाकर दुनिया को पर्यावरण के प्रति एक रिकार्डमय सन्देश दिया है। इन्हें पहाड़ का मांझी कहे तो अतिशयोक्ति नही होगी।जिसने अपनी मेहनत से विशाल जंगल तैयार कर दिया।जिससे आने वाली पीढ़िया अपने को खुशहाल महसूस करेंगी।
 विश्वेश्वर दत्त सकलानी ने अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में भी आंखों की रोशनीचली जाने के बावजूद पेड़ लगाना जारी रखा।उनकी जबान से यही शब्द निकलते रहे कि ,वृक्ष ही मेरे माता-पिता वृक्ष ही मेरी संतान वृक्ष ही मेरे जीवन साथी।
 विश्वेश्वर दत्त सकलानी ने जटिल परिस्थितियों में अपनी सकलाना घाटी को हरा भरा करने के लिए टिहरी जिले के पुजार गांव में जन्म लेकर अपनी धरती माँ का कर्ज उतारा।पेड़ के पुजारी विश्वेश्वर द्त्त सकलानी का जन्म 2 जून 1922 को हुआ था।बचपन से विश्वेश्वर दत्त को पेड़ लगाने का शौक था और वे अपने दादा के साथ जंगलों में पेड लगाने जाते रहते थे।उनका जीवन माउन्टेंन मैन दशरथ मांझी की तरह रहा है जिन्होंने एक सड़क के लिए पूरा पहाड़ खोद दिया था। दशरथ मांझी की तरह विश्वेश्वर दत्त सकलानी के जिन्दगी में भीअहम बदलाव तब आया जब उनकी पत्नी शारदा देवी का देहांत 1948 को हो गया। इस घटना के बाद उनका लगाव वृक्षों और जंगलों की तरफ हो गया ।अब उनके जीवन का एक ही उद्देश्य बन गया था केवल वृक्षारोपण करना ओर उन्ही के लिए जीना।
सकलानी ने धरती मां के लिए अपनी आंखो की रोशनी गंवा दी बीमारी के बावजूद जंगलों में पेड़ लगाने का उनका जूनून कम नही हुआ ।जब शरीर ने भी साथ छोड दिया तब भी वे पेड़ के लिए ही सांस लेते रहे।तभी तो उन्हें वृक्षमानव की उपाधि से नवाजा गया। विश्वेश्वर दत्त सकलानी अंत तक अपने पैतृक गांव पुजारा में रहते रहे।उनकी सांसे भी पेडों की ही बातें करती रही। विश्वेश्वर दत्त सकलानी ने सकलाना घाटी की तस्वीर ही  बदल कर रख दी। करीब 60- 70 साल पहले इस पूरे इलाके में अधिकतर इलाका पेड़ विहीन था। सकलानी ने धीरे धीरे  बांज,बुरांश,सेमल,भीमल और देवदार के पेड़  लगाने शुरु किये। शुरू शुुरू में ग्रामीणों ने इसका काफी विरोध किया, यहां तक कि उनपर कई बार हमला भी किया गया लेकिन धरती मां के इस नायक ने अपना जूनून नही छोडा जिसके परिणाम स्वरूप करीब 1200 हेक्टेयर से भी अधिक क्षेत्रफल में उनके द्वारा पूरा जंगल खडा हो चुका है।विश्वेश्रर दत्त सकलानी ने अपना पूरा जीवन पहाड़ के लिए दे दिया।पेंड़ों और धरती मां के लिए त्याग बलिदान और संघर्ष की ऐसी दास्तां शायद ही किसी ने कहीं देखी होगी।पुजार गांव के लोग बताते हैं कि जब उनकी बेटी का विवाह था और कन्यादान होने जा रहा था तो उस समय में वो जंगल में वृक्षारोपण करने गए थे। विश्वेश्वर दत्त सकलानी का जीवन उन पर्यावरण विदों के लिए आईना है जो अपने जुगाड़ के कारण बड़े बड़े अवार्ड हथिया लेते हैं लेकिन जमीन में दिखाने के लिए उनके पास कुछ नही नही होता।कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष  किशोर उपाध्याय ने बताया कि विशेश्वर दत्त सकलानी को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सम्मानित भी किया था।लेकिन उसके बाद की सरकारें उन्हें भूली ही रही।पर्यावरण की इस महान विभूति को शत शत नमन।

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