सामाजिक संगठनों ने की रिवरफ्रन्ट परियोजना के घपलों में जांच मांग

देहरादून- दून के एक दर्जन से भी ज़्यादा संगठनों ने एक साथ मंच सांझा कर मसूरी-देहरादून विकास प्राधिकरण के महत्वाकांक्षी रिवरफ्रण्ट डेवलपमेंट परियोजना पर जांच कि मांग की है | इस मांग की पृष्ठभूमि समझाते हुए विभिन्न संगठनों के प्रतिनिथियों ने बताया कि इस परियोजना के तहत जो दीवारें पायलट फेज़ में बनाई गईं थी वह अपनी पहली बारिश में ही ढह गईं हैं| नागरिकों ने यह स्पष्ट किया कि वह दीवारें ही अपने आप में एक प्राकृतिक संसाधन का घोर अतिक्रमण थी जिसने अस्सी मीटर चौड़ी नदी को तीस मीटर तक समेट के रख दिया था |  इसलिए उन दीवारों का ढहना स्वाभाविक है लेकिन मसूरी- देहरादून विकास प्राधिकरण द्वारा जनसंसाधनो को इस तरह लुटाना शहर के क़ानूनप्रिय नागरिकों को कतई मंजूर नहीं है | इसी मांग को आगे रखते हुए सभी संगठनों ने एक साथ न सिर्फ इस परियोजना में हुए घपलों पर जांच की मांग की बल्कि इस पूरी परियोजना को बंद करने का आवाहन किया | 
इस मांग के पीछे न सिर्फ पर्यायवरण संगरक्षण के तथ दिए गए बल्कि कानूनी एवं तकनीकी दृष्टिकोण समझाया गया |कानूनी तौर पे नदी पर किसी भी तरह का निर्माण अवैध है और एमडीडीए ने नदी को सिकुड़ के एक अवैध काम किया है | दूसरा, एमडीडीए द्वारा सिंचाई विभाग की तकनीकी आपत्तियों को नज़रअंदाज़ किया गया जो उसके भृष्ट आचरण का विवरण देता है | इस बात को समझाते हुए, मैड के सदस्यों ने सिंचाई विभाग द्वारा एमडीडीए को लिखे एक पत्र को सांझा किया जिसमें एक स्थान पर रिस्पना का बहाव एमडीडीए की तकनीकी संस्था वेपकॉस द्वारा दस क्युमेक/सेकंड मापा गया था जबकि सिंचाई विभाग ने उसी समय उसी स्थान पर रिस्पना के बहाव को सौ क्युमेक/सेकंड मांपा था | दीवारें बनाते समय एमडीडीए द्वारा बड़े तर्क दिए गए कि यह निर्माण वह रिस्पना के सौ साल का फ्लड प्लेन डाटा एकत्र करके और उसकी स्टडी करके कर रही है | नागरिकों ने इस बात पर चुटकी ली कि यह कैसा डाटा उनके द्वारा एकत्र किया गया जो वह अपनी पहली बारिश ही नहीं झेल सका |इसके बाद समस्त जनप्रतिनिधियों ने देहरादून के छात्र संगठन मेकिंग अ डिफरेंस बाय बीइंग द डिफरेंस(मैड) संस्था द्वारा जारी की गई रिपोर्ट का भी हवाला दिया जिसमें पिछले हफ्ते हुई भीषण बारिश में सरकार के गैरज़िम्मेदाराना रवैये से नुकसान का आंपदन किया गया था | उस रिपोर्ट में मैड ने स्पष्ट तौर पर एमडीडीए की उन दीवारों का भी विवरण दिया था जो ढह गई थी | उन तस्वीरों को सांझा किया गया था और बताया गया था कि इसी तरीके के मलवे से जान-माल का नुकसान होता है | ये ढही हुई दीवारें ही इस परियोजना में हुए घपले और मूर्खता की कहानी दर्शाती हैं |  

एक स्वर में सभी नागरिकों ने यह मांग करी कि इस पूरे घोटाले में दोषी अधिकारियों के खिलाफ सख्त से सख्त कारवाही होनी चाहिए तभी एमडीडीए अपने नए नाम मसूरी-देहरादून विनाश प्राधिकरण से अलग हटकर जाना जा सकेगा| इस प्रेस वार्ता का आयोजन सभी नागरिकों के संयुक्त प्रयासों से किया गया और इसमें मैड द्वारा सबको एक मंच पर लाने की  पहल की गई | प्रेस वार्ता में राजपुर कम्युनिटी इनिशिएटिव, इंस्पिरेशन्स "प्रेरणा" फाउंडेशन, संयुक्त नागरिक संगठन, रेसिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन, आल इंडिया कंसुमर कॉउंसिल, आगाज़ फाउंडेशन, सिटीजन्स फॉर ग्रीन दून, और DAV पीजी कॉलेज के पूर्व-सचिव , सचिन थपलियाल ने भाग लिया।रीनू पॉल, संस्थापक, राजपुर कम्युनिटी इनिशिएटिव- "यह पूरी परियोजना वैचारिक स्तर पर ही गलत थी। पूरी दुनिया में नदियों के  विकास के लिए अधिक ज़मीन दी गयी है और हमारे शहर में नदी की ही ज़मीन पर दीवारें बनायीं जा रही हैं। इस परियोजना को रोक दिया जाना चाहिए और इसपर एक जांच का आदेश दिया जाना चाहिए।"सुजाता पॉल, इंस्पिरेशन "प्रेरणा" फाउंडेशन- "रिस्पना नदी पर दीवारों का निर्माण एक बेवकूफी भरा कदम था जिससे सार्वजानिक धन की काफी बर्बादी हुई। जो शहर पहले से ही भारी क़र्ज़ में है, वहां इस प्रकार के कदम का उत्तरदायित्व ज़रूर तय किया जाना चाहिए। राज्य में रहने वाले नागरिकों के साथ उचित चर्चा किए बिना ऐसी कोई योजना फिर से लाई जानी चाहिए।"आशीष गर्ग, सदस्य, सिटीजन्स फॉर ग्रीन दून- "पिछले आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए, यहाँ आरसीसी (प्रबलित सीमेंट कंक्रीट) बनाना अधिक तार्किक होता, क्योंकि वह इस प्रकार ध्वस्त न होती। पत्थर चिनाई दीवार का निर्माण आयताकार पत्थरों के साथ किया जा सकता था जो अधिक स्थिरता प्रदान कर सकता था। यहां तक ​​कि स्टील नेट के साथ गन बैग भी इस उद्देश्य को पूरा कर लेते और कम लागत में पड़ सकते थे।" महेश भंडारी, अध्यक्ष, रेसिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन- "नदी के बीच में दीवारों को बनाए रखने के लिए कोई तर्क नहीं था। चूंकि दीवार को जमीन भरने, न कि बैंक की रक्षा करने के लिए बनाया गया था, इसलिए विफलता प्रतिष्ठित थी।"
सुशील कुमार, सेक्रेटरी, संयुक्त नागरिक संगठन- "नागरिकों की बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए था। जनता का धन भारी मात्र में बर्बाद हुआ है और किसी को इसके लिए जवाबदेह होना चाहिए।"
परमजीत कक्कर, प्रमुख- "सत्ता में रहने वाले लोग शायद सोचते हैं कि वो ही निर्णय निर्माता हैं और आम आदमी का शहर के विकास में कुछ कहने का कोई हक़ नहीं है। ऐसी परियोजनाओं पर खर्च होने वाला धन जनता का ही है और केवल नागरिक भागीदारी प्रक्रिया के माध्यम से ही ये सेवाएं और परियोजनाएं जनता की आवश्यकता / आकांक्षाओं को पूरा कर सकती हैं

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