नकारा सरकार और निकम्मा विपक्ष
देहरादून --त्रिवेंद्र सरकार को अभी साल भर भी पूरा नहीं हुआ लेकिन सियासी गलियारों से लेकर चौराहे चौपालों तक सरकार को लेकर सवाल उठने लगे हैं । सरकार के रोल बैक, जीरो टालरेंस जैसे जुमले, हवाई घोषणाएं, जमीन और शराब में जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी, बेरोजगारों और स्थानीय मुद्दों की अनदेखी और अंदरूनी मतभेद के चलते सरकार कठघरे में है । सरकार के मायने विश्वसनियता, परिपक्वता, ईमानदारी, आत्मविश्वास, व दूरदर्शिता से है, लेकिन इस सरकार में इन सभी का अभाव साफ नजर आने लगा है । सवाल उठने लगा है कि दस महीने पहले तीन चौथाई से अधिक बहुमत से बनी क्या इसी 'मजबूत' सरकार की अपेक्षा की जा रही थी जो दौड़ना तो दूर ढंग से चल भी नहीं पा रही ? क्या इसी सरकार से बड़ी उम्मीदें पाली जा रही हैं, जिसने भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस और सुशासन के दावे के साथ अपनी पारी की शुरूआत की और साल भर से पहले खुद ही अपने दावों को 'सलीब' पर टांग दिया ।
सरकार को छोड़िये इस बार तो तकरीबन हाशिये पर अटके विपक्ष से भी काफी उम्मीद थी कि जनता के लिये न सही अपने सियासी भविष्य के लिये तो विपक्ष अपनी भूमिका के साथ न्याय करेगा । लेकिन यह क्या विपक्ष भी वही पुराने रस्म अदायगी के ढर्रे और बयान बहादुरी से आगे नहीं निकल पा रहा है । खैर यह सब इसलिये क्योंकि इस बार सरकार और विपक्ष दोनो से ही कुछ 'नए' की उम्मीद की जा रही थी । हालात यह हैं कि 'मजबूत' सरकार और 'कमजोर' विपक्ष दोनो ही सियासत के फेर से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं । स्थाई राजधानी गैरसैण और लोकायुक्त जैसे मुद्दों की बात तो दूर सरकार तो हमेशा की तरह जमीन, शराब और खनन के खेल में उलझी है, तो दूसरी ओर वक्त काटता विपक्ष सिर्फ अपनी बारी के इंतजार में है। मुख्यमंत्री सरकार को लेकर लाख दावे करें लेकिन सरकार सही मायनों में कहीं है ही नहीं । संगठित रूप में सरकार चल कहां रही है, मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों से तो मंत्री मुख्यमंत्री से खफा हैं । साल भर होने को है सरकार अपना मंत्रिमंडल तक पूरा नहीं कर पायी है, जो यह बताने के लिये पर्याप्त है कि सरकार में सब कुछ ठीक नहीँ है । मुख्यमंत्री ने अपने इर्द गिर्द जो घेरा तैयार किया है उसमें उनके कुनबे या करीबी रिश्तेदारों का दबदबा है, मंत्रिमंडल के कई सहयोगी मंत्रियों से उनके संबंध सामान्य नहीं हैं। मात्र दो अफसरों पर उनकी पूरी निर्भरता नौकरशाही को भी असहज किये हुए है। इन सबके चलते मजबूत स्थिति में होने के बावजूद सरकार में ही उन्हें 'हिलाने' की जुगत पहले दिन से चल रही है । चिंताजनक यह है कि यह मुहिम खत्म होने के बजाय निरंतर बढती जा रही है, इससे मुख्यमंत्री की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खडा होने लगा है। सरकार के कामकाज पर नजर दौड़ायें तो सरकार के तमाम एक्शन सरकार पर सवाल खड़े कर रहे हैं । रोल बैक में यह सरकार पिछली सरकारों से आगे निकल चुकी है। पिछली सरकार में सवालों में घिरे शिक्षकों के तबादले, खनन के पट्टों और आबकारी नीति पर जिस तरह सरकार आगे बढ़कर पीछे हटी वह किसे से छिपा नहीं है । हाल ही में व्यवसायी प्रकाश पाण्डेय की आत्महत्या वाले प्रकरण में तो सरकार का रवैया बेहद गैर जिम्मेदाराना व अविश्वसनीय रहा है । पहले पीड़ित परिवार को मुआवजे की घोषणा करना और बाद में मुकर जाना, यह कम से कम किसी सरकार का चरित्र तो नहीं होता । सरकार प्रचारित करती है कि वह 'जीरो टालरेंस' की सरकार है। लेकिन सच यह है कि जितना जोर जीरो टालरेंस पर दिया जा रहा है उतने ही बडे 'खेलों' को अंजाम भी दिया जा रहा है। जमीन, शराब और खनन पर सरकार का पूरा फोक्स है । सरकार का आते ही नगर निकायों का सीमा विस्तार किया जाना अपने आप में जमीनों का एक बड़ा खेल है । राज्य की सैकड़ों हेक्टेयर जमीन सरकार के इस फैसले से एक ही झटके में भू कानून के दायरे से बाहर कर दी । इसका सीधा फायदा जमीनों के उन सौदागरों को पहुंचा है जिनकी जमीनें भू कानून के शिकंजे में फंसी हुई थी । दूसरा जमीनों से जुड़ा खेल सर्किल रेट के निर्धारण में खुलेआम खेला गया । देहरादून के एक क्षेत्र विशेष में सर्किल रेट 111 फीसदी बढाने का और हरिद्वार के क्षेत्र विशेष में 250 से 400 फीसदी तक किया जाना भी यूं ही नहीं हुआ, यह फैसला व्यक्ति विशेष के लिये ही किया गया है। ऐसे में कैसे मान लिया जाए कि यह जीरो टालरेंस की सरकार है ? शराब में राजस्व के बहाने सफेदपोश और नौकरशाह खुलकर खेल खेलने में जुटे हैं । सरकार ओवर रेटिंग के नाम पर पूरी मनमानी कर लेती है, बीच सत्र में महकमे में बडे पैमाने पर तबादले कर डालती है और राजधानी में सरकार की नाक के नीचे ही खुलेआम ओवर रेटिंग होती है । आबकारी नीति आज भी माफिया के हिसाब से ही तय होती है, सरकार तो सिर्फ मुहर लगाने भर की है। कमोबेश यही हाल खनन में है, पहले सरकार खनन के पट्टों पर रोक लगाती है और बाद में हटा देती है । खनन के पटटों और ठेकों में पहले कांग्रेस के नेताओं के नाम चर्चा में थे तो अब भाजपा के चुनिंदा नेताओं की चर्चा है। शुरू में जिन घोटालों की जांच खोलकर सरकार तेवर दिखा रही थी, उनकी आंच भी अब ठंडी पड़ने लगी है । एनएच घोटला, सिडकुल घोटाला, खाद्यान घोटाला, बस खरीद घोटाला, क्या हुआ इन सब में किसी भी घोटाले में बड़े जिम्मेदारों तक जांच की आंच नहीं पहुंची। सरकार का शासन पर और प्रशासन पर कोई नियंत्रण नहीं है । पहले एक अकेले अफसर की तो अब दो अफसरों की मनमानी पूरे सिस्टम पर हावी है । तमाम मौकों पर इनके कारण किरकिरी के बावजूद मुख्यमंत्री इन अफसरों से किनारा करने को तैयार नहीं । शासन और प्रशासन में अफसरों की तैनाती में वरिष्ठता और अनुभव की मानो कोई अहमियत नहीं, कौन सीनियर कब जूनियर हो जाए और कौन जूनियर सीनियर पोस्ट पर आ जाए कहा नहीं जा सकता । अराजकता का आलम यह है कि जूनियर अफसर सीनियर के आदेश पलट रहा है । नयी परंपराएं गढ़ी जा रही हैं, मुख्यमंत्री के ओएसडी जनता दरबार लगा रहे हैं खुलेआम सियासत कर रहे हैं । सरकार में मंत्रियों का आलम यह है कि कहीं तो वह निष्क्रिय हैं और कहीं जरूरत से ज्यादा इतने सक्रिय कि उन्हें अपने क्षेत्र की समस्यायें जानने सुनने की फुर्सत नहीं । हाल यह है कि प्रदेश में पंचेश्वर बांध और आल वेदर रोड के नाम पर हजारों पेडों का कटान तो संभव है, लेकिन स्थानीय लोगों के लिये सडक के आडे आने वाले पेडों को काटने की मंजूरी की कोई संभावना नहीं । मुख्यमंत्री सपने दिखाते हैं कि वह रिस्पना को पुनर्जीवित कर देंगे उसे वापस "ऋषिपर्णा" बना देंगे लेकिन आश्चर्य है कि दो महीने में एक भी कब्जा रिस्पना से नहीं हटाया, अब सरकार बिना अवैध कब्जे हटाये कैसे रिस्पना का ऋषिपर्णा बनायेगी यह भी यक्ष प्रश्न है । अब सवाल विपक्ष का, सरकार को लेकर जितने भी सवाल यहां उठ रहे हैं उन पर विपक्ष की भूमिका किसी से छिपी नहीं है । जमीन का मुद्दा हो या फिर शराब और खनन का विपक्ष कहीं नजर आया ही नहीं । विपक्ष के पास न सरकार को घेरने की रणनीति ही और संघर्ष की सामर्थ्य । विपक्ष तो मानो बस नाम भर का है और मुद्दों पर सिर्फ रस्म अदायगी तक सीमित है। एक भी मुद्दा ऐसा नहीं जिसे विपक्षी कांग्रेस ने जोरदार तरीके से उठाया हो । लोकपाल का मुद्दा हो या स्थायी राजधानी और जमीनों के खेल का हर मुद्दे पर विपक्ष की भूमिका संदिग्ध रही है । भ्रषटाचार के मुद्दे पर विपक्षी कांग्रेस कुछ कहने की स्थिति में भी नहीं है । तमाम मुद्दों के बावजूद विपक्षी कांग्रेस सिर्फ अपने मुख्यालय के पांच सौ मीटर के दायरे में ही सीमित रहना, जो फिर वक्त यही साबित करता है कि विपक्ष 'निकम्मा' है । वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट की कलम से........
सरकार को छोड़िये इस बार तो तकरीबन हाशिये पर अटके विपक्ष से भी काफी उम्मीद थी कि जनता के लिये न सही अपने सियासी भविष्य के लिये तो विपक्ष अपनी भूमिका के साथ न्याय करेगा । लेकिन यह क्या विपक्ष भी वही पुराने रस्म अदायगी के ढर्रे और बयान बहादुरी से आगे नहीं निकल पा रहा है । खैर यह सब इसलिये क्योंकि इस बार सरकार और विपक्ष दोनो से ही कुछ 'नए' की उम्मीद की जा रही थी । हालात यह हैं कि 'मजबूत' सरकार और 'कमजोर' विपक्ष दोनो ही सियासत के फेर से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं । स्थाई राजधानी गैरसैण और लोकायुक्त जैसे मुद्दों की बात तो दूर सरकार तो हमेशा की तरह जमीन, शराब और खनन के खेल में उलझी है, तो दूसरी ओर वक्त काटता विपक्ष सिर्फ अपनी बारी के इंतजार में है। मुख्यमंत्री सरकार को लेकर लाख दावे करें लेकिन सरकार सही मायनों में कहीं है ही नहीं । संगठित रूप में सरकार चल कहां रही है, मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों से तो मंत्री मुख्यमंत्री से खफा हैं । साल भर होने को है सरकार अपना मंत्रिमंडल तक पूरा नहीं कर पायी है, जो यह बताने के लिये पर्याप्त है कि सरकार में सब कुछ ठीक नहीँ है । मुख्यमंत्री ने अपने इर्द गिर्द जो घेरा तैयार किया है उसमें उनके कुनबे या करीबी रिश्तेदारों का दबदबा है, मंत्रिमंडल के कई सहयोगी मंत्रियों से उनके संबंध सामान्य नहीं हैं। मात्र दो अफसरों पर उनकी पूरी निर्भरता नौकरशाही को भी असहज किये हुए है। इन सबके चलते मजबूत स्थिति में होने के बावजूद सरकार में ही उन्हें 'हिलाने' की जुगत पहले दिन से चल रही है । चिंताजनक यह है कि यह मुहिम खत्म होने के बजाय निरंतर बढती जा रही है, इससे मुख्यमंत्री की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खडा होने लगा है। सरकार के कामकाज पर नजर दौड़ायें तो सरकार के तमाम एक्शन सरकार पर सवाल खड़े कर रहे हैं । रोल बैक में यह सरकार पिछली सरकारों से आगे निकल चुकी है। पिछली सरकार में सवालों में घिरे शिक्षकों के तबादले, खनन के पट्टों और आबकारी नीति पर जिस तरह सरकार आगे बढ़कर पीछे हटी वह किसे से छिपा नहीं है । हाल ही में व्यवसायी प्रकाश पाण्डेय की आत्महत्या वाले प्रकरण में तो सरकार का रवैया बेहद गैर जिम्मेदाराना व अविश्वसनीय रहा है । पहले पीड़ित परिवार को मुआवजे की घोषणा करना और बाद में मुकर जाना, यह कम से कम किसी सरकार का चरित्र तो नहीं होता । सरकार प्रचारित करती है कि वह 'जीरो टालरेंस' की सरकार है। लेकिन सच यह है कि जितना जोर जीरो टालरेंस पर दिया जा रहा है उतने ही बडे 'खेलों' को अंजाम भी दिया जा रहा है। जमीन, शराब और खनन पर सरकार का पूरा फोक्स है । सरकार का आते ही नगर निकायों का सीमा विस्तार किया जाना अपने आप में जमीनों का एक बड़ा खेल है । राज्य की सैकड़ों हेक्टेयर जमीन सरकार के इस फैसले से एक ही झटके में भू कानून के दायरे से बाहर कर दी । इसका सीधा फायदा जमीनों के उन सौदागरों को पहुंचा है जिनकी जमीनें भू कानून के शिकंजे में फंसी हुई थी । दूसरा जमीनों से जुड़ा खेल सर्किल रेट के निर्धारण में खुलेआम खेला गया । देहरादून के एक क्षेत्र विशेष में सर्किल रेट 111 फीसदी बढाने का और हरिद्वार के क्षेत्र विशेष में 250 से 400 फीसदी तक किया जाना भी यूं ही नहीं हुआ, यह फैसला व्यक्ति विशेष के लिये ही किया गया है। ऐसे में कैसे मान लिया जाए कि यह जीरो टालरेंस की सरकार है ? शराब में राजस्व के बहाने सफेदपोश और नौकरशाह खुलकर खेल खेलने में जुटे हैं । सरकार ओवर रेटिंग के नाम पर पूरी मनमानी कर लेती है, बीच सत्र में महकमे में बडे पैमाने पर तबादले कर डालती है और राजधानी में सरकार की नाक के नीचे ही खुलेआम ओवर रेटिंग होती है । आबकारी नीति आज भी माफिया के हिसाब से ही तय होती है, सरकार तो सिर्फ मुहर लगाने भर की है। कमोबेश यही हाल खनन में है, पहले सरकार खनन के पट्टों पर रोक लगाती है और बाद में हटा देती है । खनन के पटटों और ठेकों में पहले कांग्रेस के नेताओं के नाम चर्चा में थे तो अब भाजपा के चुनिंदा नेताओं की चर्चा है। शुरू में जिन घोटालों की जांच खोलकर सरकार तेवर दिखा रही थी, उनकी आंच भी अब ठंडी पड़ने लगी है । एनएच घोटला, सिडकुल घोटाला, खाद्यान घोटाला, बस खरीद घोटाला, क्या हुआ इन सब में किसी भी घोटाले में बड़े जिम्मेदारों तक जांच की आंच नहीं पहुंची। सरकार का शासन पर और प्रशासन पर कोई नियंत्रण नहीं है । पहले एक अकेले अफसर की तो अब दो अफसरों की मनमानी पूरे सिस्टम पर हावी है । तमाम मौकों पर इनके कारण किरकिरी के बावजूद मुख्यमंत्री इन अफसरों से किनारा करने को तैयार नहीं । शासन और प्रशासन में अफसरों की तैनाती में वरिष्ठता और अनुभव की मानो कोई अहमियत नहीं, कौन सीनियर कब जूनियर हो जाए और कौन जूनियर सीनियर पोस्ट पर आ जाए कहा नहीं जा सकता । अराजकता का आलम यह है कि जूनियर अफसर सीनियर के आदेश पलट रहा है । नयी परंपराएं गढ़ी जा रही हैं, मुख्यमंत्री के ओएसडी जनता दरबार लगा रहे हैं खुलेआम सियासत कर रहे हैं । सरकार में मंत्रियों का आलम यह है कि कहीं तो वह निष्क्रिय हैं और कहीं जरूरत से ज्यादा इतने सक्रिय कि उन्हें अपने क्षेत्र की समस्यायें जानने सुनने की फुर्सत नहीं । हाल यह है कि प्रदेश में पंचेश्वर बांध और आल वेदर रोड के नाम पर हजारों पेडों का कटान तो संभव है, लेकिन स्थानीय लोगों के लिये सडक के आडे आने वाले पेडों को काटने की मंजूरी की कोई संभावना नहीं । मुख्यमंत्री सपने दिखाते हैं कि वह रिस्पना को पुनर्जीवित कर देंगे उसे वापस "ऋषिपर्णा" बना देंगे लेकिन आश्चर्य है कि दो महीने में एक भी कब्जा रिस्पना से नहीं हटाया, अब सरकार बिना अवैध कब्जे हटाये कैसे रिस्पना का ऋषिपर्णा बनायेगी यह भी यक्ष प्रश्न है । अब सवाल विपक्ष का, सरकार को लेकर जितने भी सवाल यहां उठ रहे हैं उन पर विपक्ष की भूमिका किसी से छिपी नहीं है । जमीन का मुद्दा हो या फिर शराब और खनन का विपक्ष कहीं नजर आया ही नहीं । विपक्ष के पास न सरकार को घेरने की रणनीति ही और संघर्ष की सामर्थ्य । विपक्ष तो मानो बस नाम भर का है और मुद्दों पर सिर्फ रस्म अदायगी तक सीमित है। एक भी मुद्दा ऐसा नहीं जिसे विपक्षी कांग्रेस ने जोरदार तरीके से उठाया हो । लोकपाल का मुद्दा हो या स्थायी राजधानी और जमीनों के खेल का हर मुद्दे पर विपक्ष की भूमिका संदिग्ध रही है । भ्रषटाचार के मुद्दे पर विपक्षी कांग्रेस कुछ कहने की स्थिति में भी नहीं है । तमाम मुद्दों के बावजूद विपक्षी कांग्रेस सिर्फ अपने मुख्यालय के पांच सौ मीटर के दायरे में ही सीमित रहना, जो फिर वक्त यही साबित करता है कि विपक्ष 'निकम्मा' है । वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट की कलम से........
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