सरकार हंस फाउंडेशन से सीखो भरोसा ,विश्वसनियता, सहारा, सुरक्षा !

देहरादून- सरकार, हंस फाउंडेशन से सीखो "भरोसा" जमाना
सरकार मायने विश्वसनियता, सहारा, सुरक्षा, भरोसा लेकिन उत्तराखंड में इन सबके मायने आज सरकार नहीं है। आज भरोसे और विश्वसनियता के मायने हैं 'द हंस फाउंडेशन'।  इधर सरकारें लगातार उत्तराखंड में जनता के बीच भरोसा खोती जा रही हैं, उधर माता मंगला देवी और भोले जी महाराज की संस्था पर आमजन का भरोसा मजबूत होता जा रहा है। आखिर क्यों न हो ? जहां सरकार 'आमजन' को सामाजिक , बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा देने में नाकाम है वहीं हंस फाउंडेशन बखूबी इन्हें अंजाम दे रहा है।
शिक्षा व खेल क्षेत्र में मेधावियों को प्रोत्साहन हो या जरूरतमंद की आर्थिक मदद, कला- संस्कृति को बढ़ावा देने का सवाल हो या प्रदेश में जीवन स्तर सुधारने और स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को मजबूत करना।  हर क्षेत्र में हंस फाउंडेशन आज सरकार से आगे है। आज हाल यह है कि सरकार भी हंस फाउंडेशन के भरोस है। किसी संस्था का प्रभाव इतनी तेजी से बढ़ना हालांकि  कई सवालों और शंकाओं को भी जन्म देता है, लेकिन सच यह है कि हंस फाउंडेशन पर आम लोगों का भरोसा दिनों दिन बढ़ रहा है। हंस फाउंडेशन की स्थापना को अभी दस वर्ष भी पूरे नहीं हुए हैं, 2009 में स्थापित यह संस्था आज उत्तराखंड के लिये वरदान बनी हुई है। प्रदेश के कई जिलों में फाउंडेशन करोडों रुपये की योजनाओं का संचालन कर रहा है।सरकार जो सत्रह साल में नहीं कर पायी वो फाउंडेशन ने चंद वर्षों में कर दिखाया है, हाल ही में पौड़ी  जिले में सतपुली के नजदीक चमोलीसैण में हंस फाउंडेशन ने एक सुपर स्पेश्यलिटी अस्पताल की स्थापना की है। तकरीबन दस एकड क्षेत्र में फैले इस अत्याधुनिक अस्पताल को हंस फाउंडेशन ने  तय समय सीमा से पहले ही तैयार कर दिखाया। यह अस्पताल प्रदेश के लिये खासकर पौड़ी  जिले के बड़े हिस्से के लिये यह एक बड़ी  सौगात है । हंस फाउंडेशन ने जिस तरह इस मौके पर सत्ता पक्ष् और विपक्ष को एक मंच पर लाकर अस्पताल जनता को समर्पित किया वह भी अपने आप में एक बडा संदेश है । अपनी तो कोई भी सरकार आज तक ऐसा नहीं कर पायी, सरकार की एक भी योजना समय से पहले तो छोड़ो  समय पर भी पूरी नहीं हुई । सरकार पहाड़ पर तो छोड़िये राजधानी देहरादून में भी समय से एक अस्पताल तैयार नहीं करा पायी। अब यही देखिये, हंस फाउंडेशन की स्थापना से भी पहले सरकार ने वर्ष 2007 में राजधानी में मल्टी स्पेश्यलिटी महात्मा गांधी नेत्र चिकित्सालय की नीवं रखी थी। योजना के मुताबिक 2010 तक इसे बनकर तैयार हो जाना था, लेकिन यह अस्पताल 2016 तक भी सही से बनकर तैयार नहीं हुआ। हद तो तब हुई जब कांग्रेस सरकार ने अपने खाते में उपलब्धि जोड़ने के मकसद से चुनाव से पहले अक्टूबर 2016 में आधी अधूरी व्यवस्थाओं में  ही तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने जबरदस्ती उसका लोकापर्ण भी कर दिया, जबकि इसका शिलान्यास भुवन चंद खंडूरी ने मुख्यमंत्री रहते हुए किया था। सरकारों में तो इस शिष्टाचार की उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि जनता से जुडी योजनाओं को सियासत से ऊपर रखा जाए। आज इस अस्पताल का आलम यह है कि व्यवस्थाएं अभी तक पटरी पर नहीं है, पहले ही दिन से स्थिति बदहाल है। सरकार इस अस्पताल के संचालन के लिये हाथ लोकापर्ण के वक्त ही खडे कर चुकी थी, सरकार कहती है कि सोसायटी ही इसका संचालन करे। वहीं दूसरी और हंस फाउंडेशन अपनी स्थापना के कुछ ही वर्षों बाद 2014 में आंखों का बडा अस्पताल हरिद्वार में तैयार कर चुका है, यह अस्पताल पिछले कई वर्षों से अपनी सेवाएं दे रहा है। सवाल यह है कि जब हंस फाउंडेशन एक संस्था के तौर पर यह कर सकती है तो सरकार क्यों नहीं कर सकती ? सरकार से मजबूत संस्था तो कोई नहीं, सरकार तो सर्वशक्तिमान है वह कुछ भी करने में सक्षम है।संसाधनों का रोना तो बेईमानी है, सरकार कर्ज की रकम से बड़े  जलशे कर सकती है बोनस बांट सकती है तो कोई ढंग का अस्पताल या कोई संस्थान क्यों नहीं तैयार कर सकती ? सरकार के पास असीमित अधिकार है संसाधन है, अगर कमी है तो सिर्फ दृढता की, मजबूत इच्छा शक्ति और ईमानदाराना और स्पष्ट जनपक्षीय सोच की । सरकार अगर ठान ले तो उसके लिये कोई काम कठिन नही, इसके भी बीते डेढ दशक में तमाम उदाहरण हैं लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उनमें एक भी राज्य हित या जनहित का नहीं है। सरकार की हालत तो यह है कि पहाड़  के अस्पताल तो छोड़ो  वह राजधानी में डोईवाला अस्पताल तक के संचालन में नाकाम है । डोईवाला अस्पताल हिमालयन मेडिकल कालेज को सौंप दिया है। प्रदेश में स्वास्थ्य में पीपीपी योजना पूरी तरह नाकाम है, इसके बावजूद पहाड के साथ ही देहरादून में भी स्वास्थ्य केंद्र पीपीपी मोड पर दिये गये हैं। सरकार के मेडिकल कालेजों के हाल इतने बिगड़े  हुए हैं कि सेना भी उन्हें लेने के लिये तैयार नहीं है। सरकार कोई नया बडा अस्पताल स्थापित करना तो दूर , पूर्व में संचालित अस्पतालों को ही नहीं संभाल पायी। प्रदेश के सबसे बडा दून अस्पताल भी मेडिकल कालेज की भेंट चढा दिया गया और मेडिकल कालेज की व्यवस्था आज तक पटरी पर नहीं हैं। सवाल यह उठता है कि क्या सरकारें वाकई इतनी लाचार है? नहीं, कतई नहीं अगर एक संस्था सीमित संसाधनों में कुशलता के साथ जन सेवायें संचालित कर सकती है तो वही काम भारी भरकम मशीनरी वाली सरकार क्यों नहीं कर सकती ? सच यह है कि सरकार के सिस्टम में खोट है ।सरकार की मंशा सही हो और सिस्टम ईमानदार हो तो सवाल ही नहीं उठता कि कोई योजना और उसका लक्ष्य पूरा न हो। बेईमानी सरकारी सिस्टम में इस कदर रच बस चुकी है कि हर योजना के पीछे कोई न कोई खेल है। अब तो हर कोई वाकिफ है कि पीपीपी मोड पर प्राइवेट हाथों में अस्पतालों को दिया जाना बडा भ्रष्टाचार है, मंशा जनता को स्वास्थ्य सुविधाएं देने की नहीं बल्कि इसकी आड में करोडों के वारे न्यारे करने की रही है। खैर  हाल ही में हंस फाउंडेशन ने जो अस्पताल शुरू किया है, इसमें कोई शक नहीं कि वह मील का पत्थर साबित होगा। डाक्टरों की कमी का रोग अगर इस अस्पताल को नहीं लगा तो सरकार के लिये बड़ी नजीर होगा । ठीक है सरकार हंस फाउंडेशन के आगे नतमस्तक है, लेकिन सरकार को सीख भी लेनी चाहिए कि कैसे भरोसा जीता जाता है । कहीं ऐसा न हो बढ़ती 'लोकप्रियता' सरकार तय करने की 'सियासी ताकत' भी हंस फाउंडेशन को दे दे! योगेश भट्ट की कलम से

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