केदारनाथ में महा शिवपुराण कथा ......
केदारनाथ: श्री बदरीनाथ - केदारनाथ मंदिर समिति द्वारा 3 अगस्त से श्री केदारनाथ धाम में 11 दिवसीय महाशिव पुराण कथा दिल्ली के दानीदाता महेन्द्र शर्मा के सहयोग से महाशिव पुराण कथा आयोजित हो रही है। मंदिर समिति के मुख्य कार्याधिकारी बी.डी. सिंह ने केदारनाथ से बताया कि 2013 की केदारनाथ आपदा में दिवंगत आत्माओं की शांति हेतु एवं सम्पूर्ण विश्व की सुखः समृद्धि हेतु 4 वर्षों से निरंतर सावन माह में महाशिव पुराण का आयोजन हो रहा है।नवम दिवस की शुभ बेला पर ज्योतिर्पीठ से अलंकृत व्यास दीपक नौटियाल द्वारा गंगा जी का अवतरण की कथा सुनाते हुए कहा कि एक बार महाराज सगर ने व्यापक यज्ञ किया। उस यज्ञ की रक्षा का भार उनके पौत्र अंशुमान ने संभाला। इंद्र ने सगर के यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया। यह यज्ञ के लिए विघ्न था। परिणामतः अंशुमान ने सगर की साठ हजार प्रजा लेकर अश्व को खोजना शुरू कर दिया। सारा भूमंडल खोज लिया पर अश्व नहीं मिला। फिर अश्व को पाताल लोक में खोजने के लिए पृथ्वी को खोदा गया। खुदाई पर उन्होंने देखा कि साक्षात् भगवान 'महर्षि कपिल' के रूप में तपस्या कर रहे हैं। उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है। प्रजा उन्हें देखकर 'चोर-चोर' चिल्लाने लगी।
महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्यों ही महर्षि ने अपने आग्नेय नेत्र खोले, त्यों ही सारी प्रजा भस्म हो गई। इन मृत लोगों के उद्धार के लिए ही महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ ने कठोर तप किया था।भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उनसे वर मांगने को कहा तो भगीरथ ने 'गंगा' की मांग की।
इस पर ब्रह्मा ने कहा- 'राजन! तुम गंगा का पृथ्वी पर अवतरण तो चाहते हो? परंतु क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी? मेरा विचार है कि गंगा के वेग को संभालने की शक्ति केवल भगवान शंकर में है। इसलिए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग संभालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए।'
महाराज भगीरथ ने वैसे ही किया। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमंडल से छोड़ा। तब भगवान शिव ने गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेटकर जटाएं बांध लीं। इसका परिणाम यह हुआ कि गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका।अब महाराज भगीरथ को और भी अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की आराधना में घोर तप शुरू किया। तब कहीं भगवान शिव ने गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिवजी की जटाओं से छूट कर गंगाजी हिमालय की घाटियों में कल-कल निनाद करके मैदान की ओर मुड़ी।इस प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगा का वरण करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भगीरथ की कष्टमयी साधना की गाथा कहती है। गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं देती, मुक्ति भी देती है। इसी कारण भारत तथा विदेशों तक में गंगा की महिमा गाई जाती है। इस अवसर पर आचार्य आनन्द प्रकाश नौटियाल ,मुख्यकार्याधिकारी बी०डी०सिंह, प्रशासनिक अधिकारी राजकुमार नौटियाल,,पुजारी टी गंगाधर लिंग, प्रभारी धर्माधिकारी ओंकार शुक्ला, वेदपाठी रविन्द्र भट्ट, डा.लोकेन्द्र रिवाड़ी,प्रबंधक अरविन्द शुक्ला, स्वयंबर सेमवाल , कर्म मनोज शुक्ला, सुभाष सेमवाल, कैलाश जमलोकी,सूरज नेगी,उमेश शुक्ला,केदारसभा अध्यक्ष विनोद शुक्ला, मंदिर समिति कर्मचारी संघ अध्यक्ष जगमोहन बर्त्वाल, सचिव प्रदीप सेमवाल,एस आई विपिन पाठक मौजूद ऱहे। मंदिर समिति के कार्याधिकारी एन.पी. जमलोकी ने बताया कथा का समापन 13 अगस्त को है। मंदिर समिति के मीडिया प्रभारी डा. हरीश गौड़ ने बताया कि गुप्तकाशी स्थित विश्वनाथ मंदिर मैं महशिव पुराण कथा के नवें दिन डा. दुर्गेश आचार्य ने मां गंगा के धरती में आने का वृतांत सुनाया, आचार्य हिमाशु सेमवाल ने मां दुर्गा के सत्व स्वरुप का वर्णन सुनाया।
महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्यों ही महर्षि ने अपने आग्नेय नेत्र खोले, त्यों ही सारी प्रजा भस्म हो गई। इन मृत लोगों के उद्धार के लिए ही महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ ने कठोर तप किया था।भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उनसे वर मांगने को कहा तो भगीरथ ने 'गंगा' की मांग की।
इस पर ब्रह्मा ने कहा- 'राजन! तुम गंगा का पृथ्वी पर अवतरण तो चाहते हो? परंतु क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी? मेरा विचार है कि गंगा के वेग को संभालने की शक्ति केवल भगवान शंकर में है। इसलिए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग संभालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए।'
महाराज भगीरथ ने वैसे ही किया। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमंडल से छोड़ा। तब भगवान शिव ने गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेटकर जटाएं बांध लीं। इसका परिणाम यह हुआ कि गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका।अब महाराज भगीरथ को और भी अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की आराधना में घोर तप शुरू किया। तब कहीं भगवान शिव ने गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिवजी की जटाओं से छूट कर गंगाजी हिमालय की घाटियों में कल-कल निनाद करके मैदान की ओर मुड़ी।इस प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगा का वरण करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भगीरथ की कष्टमयी साधना की गाथा कहती है। गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं देती, मुक्ति भी देती है। इसी कारण भारत तथा विदेशों तक में गंगा की महिमा गाई जाती है। इस अवसर पर आचार्य आनन्द प्रकाश नौटियाल ,मुख्यकार्याधिकारी बी०डी०सिंह, प्रशासनिक अधिकारी राजकुमार नौटियाल,,पुजारी टी गंगाधर लिंग, प्रभारी धर्माधिकारी ओंकार शुक्ला, वेदपाठी रविन्द्र भट्ट, डा.लोकेन्द्र रिवाड़ी,प्रबंधक अरविन्द शुक्ला, स्वयंबर सेमवाल , कर्म मनोज शुक्ला, सुभाष सेमवाल, कैलाश जमलोकी,सूरज नेगी,उमेश शुक्ला,केदारसभा अध्यक्ष विनोद शुक्ला, मंदिर समिति कर्मचारी संघ अध्यक्ष जगमोहन बर्त्वाल, सचिव प्रदीप सेमवाल,एस आई विपिन पाठक मौजूद ऱहे। मंदिर समिति के कार्याधिकारी एन.पी. जमलोकी ने बताया कथा का समापन 13 अगस्त को है। मंदिर समिति के मीडिया प्रभारी डा. हरीश गौड़ ने बताया कि गुप्तकाशी स्थित विश्वनाथ मंदिर मैं महशिव पुराण कथा के नवें दिन डा. दुर्गेश आचार्य ने मां गंगा के धरती में आने का वृतांत सुनाया, आचार्य हिमाशु सेमवाल ने मां दुर्गा के सत्व स्वरुप का वर्णन सुनाया।
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