पूजापाठ, जप-तप, यज्ञ, दान आदि को ही भक्ति समझ बैठा
देहरादून-ज्ञान प्रचारक जसराम थपलियाल ने अपने प्रवचनों में कहाकि मनुष्य तरह-तरह के कर्मकाण्ड में लगा हुआ है। वह समझता है कि मैं भक्ति के मार्ग पर चल रहा हॅू। भक्ति मार्ग पर जो कुछ करना चाहिए, वो मैं कर रहा हूॅ। वह पूजापाठ, जप-तप, यज्ञ, दान आदि को ही भक्ति समझ बैठा है। यदि यह सब कुछ करने के पश्चात भी मन में निर्मलता नही है, तो वह भक्ति की श्रेणी में कभी नहीं आ सकता
और न ही भक्ति का आनन्द प्राप्त कर सकता है। यह उद्गार हरिद्वार बाईपास स्थित सन्त निरंकारी भवन (भूमि) पर आयोजित सत्संग कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुये स्थानीय ज्ञान प्रचारक जसराम थपलियाल ने सतगुरू माता सविन्दर हरदेव सिंह महाराज के सन्देश देते हुए व्यक्त किया। उन्होंने आगे फरमाया कि गुरू द्वारा ज्ञान प्राप्त के पश्चात ही हमें परमात्मा की पहचान होती है और हम स्वयं को भी जान पाते है। परमात्मा का रूप निराकार, शान्त और निर्मल है। यह किसी के साथ भेद नही करता। यही इसके गुण है। सद्गुरू ज्ञान के माध्यम से हमें निराकार से जोड़कर इन गुणों को धारण करने की शिक्षा देता है। इन गुणों को ग्रहण करके ही हमारा मन निर्मल व पवित्र होगा। तभी हमें भक्ति का मर्म समझ में आता है। मन से ईष्या, निन्दा, अंहकार, द्वेष जैसे नकारात्मक भाव समाप्त हो जाते है। इसके पश्चात ही हम भक्ति की ओर अपने मन को लगा सकते है। हमारा मन केवल निराकार की चाहना में लग जाता है, तब कोई छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब नजर नही आता। सभी में इसी एक निराकार पारब्रहम के दर्शन होने लगते है। हमें उन्हीं गुणों को धारण करना है जो हमें भक्ति की ओर ले जाते है। सत्संग ही वह माध्यम है, जो निरंतर इस गुणों को मन में बसाने का अभ्यास कराता है। सत्संग से ही हमें अपने मन को परखने का मौका मिलता है कि हमें किस प्रकार भक्ति मार्ग पर चलना है। हमें केवल सतगुरू के दिखाये मार्ग पर ही चलना है, तभी भक्ति सम्भव है। सत्संग समापन से पूर्व अनेकों सन्तों-भक्तों, प्रभु प्रेमियों ने गीतों, प्रवचनों द्वारा संगत को निहाल किया। मंच संचालन अशोक ने किया।
और न ही भक्ति का आनन्द प्राप्त कर सकता है। यह उद्गार हरिद्वार बाईपास स्थित सन्त निरंकारी भवन (भूमि) पर आयोजित सत्संग कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुये स्थानीय ज्ञान प्रचारक जसराम थपलियाल ने सतगुरू माता सविन्दर हरदेव सिंह महाराज के सन्देश देते हुए व्यक्त किया। उन्होंने आगे फरमाया कि गुरू द्वारा ज्ञान प्राप्त के पश्चात ही हमें परमात्मा की पहचान होती है और हम स्वयं को भी जान पाते है। परमात्मा का रूप निराकार, शान्त और निर्मल है। यह किसी के साथ भेद नही करता। यही इसके गुण है। सद्गुरू ज्ञान के माध्यम से हमें निराकार से जोड़कर इन गुणों को धारण करने की शिक्षा देता है। इन गुणों को ग्रहण करके ही हमारा मन निर्मल व पवित्र होगा। तभी हमें भक्ति का मर्म समझ में आता है। मन से ईष्या, निन्दा, अंहकार, द्वेष जैसे नकारात्मक भाव समाप्त हो जाते है। इसके पश्चात ही हम भक्ति की ओर अपने मन को लगा सकते है। हमारा मन केवल निराकार की चाहना में लग जाता है, तब कोई छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब नजर नही आता। सभी में इसी एक निराकार पारब्रहम के दर्शन होने लगते है। हमें उन्हीं गुणों को धारण करना है जो हमें भक्ति की ओर ले जाते है। सत्संग ही वह माध्यम है, जो निरंतर इस गुणों को मन में बसाने का अभ्यास कराता है। सत्संग से ही हमें अपने मन को परखने का मौका मिलता है कि हमें किस प्रकार भक्ति मार्ग पर चलना है। हमें केवल सतगुरू के दिखाये मार्ग पर ही चलना है, तभी भक्ति सम्भव है। सत्संग समापन से पूर्व अनेकों सन्तों-भक्तों, प्रभु प्रेमियों ने गीतों, प्रवचनों द्वारा संगत को निहाल किया। मंच संचालन अशोक ने किया।
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