बी जे पी डबल इंजन नहीं 'डबल स्टैंडर्ड ' की सरकार !



देहरादून-  सरकार सिर्फ सवालों के लिए ही नहीं, सरकार सिर्फ आलोचना के लिए ही नहीं। उसके हर फैसले को संदेह की नजर से देखना भी उचित नहीं। लेकिन सरकार का झूठ अगर साफ नजर आए, कथनी और करनी में फर्क सामने हो, दावों और हकीकत में अंतर हो तो आखिर फिर कितना नजरअंदाज किया जाए? छोड़िए भ्रष्टाचार की बातें, नहीं सवाल उठाते कि एनएच घोटाले पर क्यों सरकार बैकफुट पर है, क्यों एक आईएएस अधिकारी की जान पर बन आने के बावजूद सरकार हरकत में नहीं है, क्यों चावल घोटाले की तरह दूसरे घोटालों पर भी सरकार सक्रिय नहीं हुई। यह भी नही पूछते कि आखिर ऐसी क्या मजबूरी है,
जो सरकार मजबूत लोकायुक्त और पारदर्शी तबादला कानून का वायदा पूरा नहीं कर पा रही है, भ्रष्टाचार पर आयोग के पीछे मंशा क्या है ? यह सवाल भी नहीं करते कि क्यों मंत्रिमंडल में अभी तक दो पद खाली हैं और क्यों सलाहकार और ओएसडी रेविड़ियों की तरह है? क्यों दागी महानुभाव सरकारी पदों पर शोभित हैं ? नहीं करते इस मुद्दे पर भी बात कि आए दिन गर्भवती महिलाएं व नवजात इलाज के अभाव में दम तोड़ रहे हैं, इसके बावजूद डाक्टर तो छोड़िए एक अदद स्वास्थ्य मंत्री तक प्रदेश को नसीब नहीं है। चलो , लचर कार्य संस्कृति, बेपरवाह सिस्टम, कमजोर प्रशासन  और अराजक नौकरशाही का जिक्र भी नहीं छेड़ते । नहीं पूछते कि जब श्रीनगर और अल्मोड़ा मेडिकल कालेज सेना ने नहीं लेने थे तो इसकी घोषणा क्यों कर दी गई। एनएच घोटाले में सीबीआई जांच नहीं होनी थी तो क्यों विधानसभा में कहा गया कि सीबीआई ने मंजूरी दे दी है। और भी बहुत कुछ है, जिन पर सरकार पर सवाल हैं । सबसे अहम तो यह है कि छह महीने में यह महसूस नहीं हो पा रहा है कि सरकार बदली भी है, बल्कि कई मौकों पर तो हालात और भी बदतर नजर आ रहे हैं। बहरहाल बात करते हैं शराब की। मौजूदा सरकार भी शराब को लेकर पुरानी सरकार की तरह कठघरे में है । प्रदेश में शराब, शराब के कारोबार और कारोबारियों से सरकार का प्रेम किसी से छिपा नहीं है। पिछली कांग्रेस सरकार शराब तो  लेकर खासी कुख्यात रही, भाजपा ने भी तब  सरकार के शराब कारोबार प्रेम को जमकर मुद्दा बनाया। कोई दोराय नहीं, पिछली सरकार ने खुलकर खेला, न जनता की परवाह की न कायदे कानून की। राज्य और राज्य के लोगों का हित और सेहत ताक पर रख कर फैसले लिए। मौजूदा सरकार से उम्मीदे तो कुछ और थी लेकिन यह सरकार तो पिछली सरकार से भी आगे निकली। इस सरकार का एजेंडा साफ नहीं है, शराब पर सरकार कहती कुछ है और करती कुछ और है। सरकार का दोगलापन सरकार के प्रचारों में प्रदेश भर में जगह-जगह साफ नजर आ रहा है। मुख्यमंत्री होर्डिंगों में दावा करते नजर आते हैं कि नशामुक्त उत्तराखंड बनाने के लिये उन्होंने संकल्प लिया है। 'संकल्प से सिद्धि तक' प्रचार शीर्षक में वह प्रदेश की जनता को संकल्प दिलाते हैं कि उन्होंने प्रदेश को नशे से आजादी का संकल्प लिया है, क्या आप नहीं लेंगे। दरअसल सरकार के होर्डिंग कहीं भी सरकार की शराब नीति से मेल नहीं खाते । विज्ञापनों में सरकार नशामुक्ति का दावा करती है, लेकिन कारोबार बचाने के लिये सरकार लाखों रुपये खर्च कर न्यायालय की शरण में जाती है। सरकार कहती है कि शराब को प्रदेश की आय का जरिया नहीं बनाएंगे, राजस्व नहीं कमाएंगे, लेकिन दूसरी ओर शराब से कमाई का लक्ष्य सालाना 1200 करोड़ रुपये से ऊपर तय करती है। कोई बताए क्या यह लक्ष्य बिना शराब पिए-पिलाए हासिल हो सकता है ? सच्चाई यह है कि सरकार शराब से कमाई भी करना चाहती है और उसे व्यवस्थित भी नहीं करना चाहती । कारण यह है कि शराब का कारोबार राज्य की कमाई का दूसरा बडा श्रोत है, इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि सिर्फ सरकार की कमाई का ही नहीं राजनेताओं और नौकरशाहों की आफ द रिकार्ड कमाई का भी यह बडा श्रोत है। शराबबंदी का शोर उठता है तो सरकार कहती है कि प्रदेश में शराबबंदी चरणबद्ध तरीके से होगी, दूसरी ओर शराब के ठेकों का विरोध करने वालों के खिलाफ सरकार मुकदमे दर्ज करती है। शराबबंदी के शोर के बीच तय किया कि पहाड़ में शराब की बिक्री सिर्फ 12 बजे से छह बजे तक ही होगी। लेकिन सरकार तीन महीने भी इस पर टिक नहीं पाई। जैसे ही शराबबंदी आंदोलन की हवा निकली सरकार ने फैसला कर दिया कि पहाड़ में भी दुकानें पहले की ही तरह सुबह दस बजे से रात दस बजे तक खुलेंगी। सरकार चाहती तो प्रदेश में शराब पर राज्य के हित, जनभावनाओं और उपभोक्ताओं को ध्यान में रखते हुए एक अच्छी नीति तैयार कर सकती थी । लेकिन सरकार के रुख से साफ है कि सरकार प्रदेश में इस कारोबार को परंपरागत स्वरुप में ही बनाए रखना चाहती है ताकि इस कारोबार पर माफिया-नौकरशाह-राजनीतिक गठजोड़ का वर्चस्व बना रहे। यह सरकार का दोहरापन है या नहीं? आखिर क्या जताना चाहती है सरकार ?

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